शनिवार, 7 सितंबर 2013

माया में ही उलझकर, गुरू हुआ घंटाल

गिरा-गिरा फिर से गिरा, रुपया गिरा धड़ाम।
गिर-गिरकर होने लगा, ससुरा आसाराम।

कौन करेगा पाप का, इस धरती से अंत।
जब बेटी की लाज को, लूटे बूढ़ा संत।।

प्रवचन में कहता रहा, माया को जंजाल।
माया में ही उलझकर, गुरू हुआ घंटाल।।

अर्थशास्त्री कर रहे, रुपये से दुष्कृत्य।
साधु बुढ़ापे में करे, बिना वस्त्र के नृत्य।।

बतलाओ गोविंद तुम, गुरु की कुछ पहचान।
ज़्यादा बड़ा मकान है, या फिर बड़ी दुकान।।

कल तक था नेपथ्य में, आज मंच पर शोर।
चोर सभी कहने लगे, इसको-उसको चोर।।

करें सिपाही किस तरह, उसकी तेज़ तलाश।
सिंहासन पर शान से, बैठा जब बदमाश।।

कई कंस दिल्ली जमे, कई जमे भोपाल।
सबका मर्दन साथ में, कैसे हो गोपाल।।

जो जनता की भूख का, करते हैं आखेट।
संसद में बिल पेशकर, कहा-भरेंगे पेट।।

लंका जिसने जीत ली, दिया दशानन मार।
आज अयोध्या देखकर, गया स्वयं से हार।।

हुई अयोध्या फिर गरम, फिर से प्रकटे 'राम'।
करने लगा चुनाव फिर, वही पुराने काम।।

जख्म नए फिर से मिले, भरे न पिछले घाव।
दंगा, कर्फ्यू, गोलियां, लेकर चला चुनाव।।

दंगा- दंगा फिर शहर, पागल है तलवार।
गोली-कर्फ्यू झेलकर, सिसकी भरता प्यार।।

शब्द भले धोखा करें, वाणी बने न मित्र।
किन्तु गवाही समय की, हरदम देंगे चित्र।।

वह सीमा के पार से, करता हमें शहीद।
हम दिल्ली से चीख़कर, देते हैं ताकीद।।

-ओम द्विवेदी