बुधवार, 28 अक्तूबर 2009

छुट्टियों के पीछे- पीछे दफ्तर

कई महीनों बाद लंबी छुट्टी पर गया था। दफ्तर छोड़कर। दीवाली के बहाने छुट्टी मिली थी। यह तो हमारे दफ्तर की कृपा थी कि उसने इतने आसान बहाने पर अवकाश स्वीकृत कर दिया, वरना रिश्तेदारों की शादी करवानी पड़ती, बीवी को बीमार करना पड़ता, दादी जो बीस साल पहले देवलोक को पधार चुकी हैं, उन्हें फिर से स्वर्गवासी करना होता, डॉक्टर से खुद के बीमार होने की पर्ची बनवानी पड़ती, वगैरह...वगैरह। सच पूछिये तो मैं अपने दफ्तर का इसीलिए प्रशंसक हूँ क्योंकि यहाँ छुट्टियों के लिए अपनी रचनात्मकता का ज्यादा इस्तेमाल नहीं करना पड़ता। तनख्वाह कम हो सकती है, इंक्रीमेंट का टोटा हो सकता है, बोनस के लाले पड़ सकते हैं, लेकिन छुट्टियाँ दिल खोलकर मिलती हैं। दूसरों के यहाँ तो अफसर छुट्टियों पर भी कुंडली मारे बैठे रहते हैं।

दफ्तर छुट्टियाँ देने में भले ही उदार हो लेकिन ज्यादा ग्रहण करने में अपन ही फटी में आ जाते हैं। लगता है लंबी छुट्टी न स्वीकृत हो जाए। छुट्टियों पर जाने से पहले यह सोचकर गया था कि अपने साथ राई-तोला भी दफ्तर लेकर नहीं जाऊँगा। घर में पूरा घर का होकर रहूँगा, लेकिन कसम रोजी की दस दिन की छुट्टी में दिन में दस बार दफ्तर लिपट-लिपट कर रोया। आँसू बहा-बहाकर बोला, हमें छोड़कर कहाँ पड़े हो। राम ने जितने बरस बनवास में काटे तकरीबन उतने ही अपन को अखबार में काटते हुए। रात-रातभर आँखें फाड़कर खबरें खोदने की इस कदर आदत हो गई है कि शाम को घर पर रहना किसी अनहोनी की तरह लग रहा था। हर शाम को लगता था कि नौकरी ने मुझे तलाक दे दिया है। घर में कोई मिलने आता तो लगता खबर देने आया है। बात-बात में नजरें खबर तलाशने लगतीं। मैं अगर दूर बैठकर खुद को देखता तो पागल जैसा ही पाता। फिर भी सारे परिजन खुश थे कि मैं कई महीनों बाद छुट्टी पर हूँ और घर पर हूँ।

छुट्टियों की तीसरी-चौथी रात सभ्य और सुसंस्कृत इंसानों की तरह रात दस बजे सो गया। रात बारह बजे अचानक सपना आया कि डेडलाइन पर पन्ने नहीं छूटे हैं और आज अखबार लेट हो जाएगा। फिर संपादक का चेहरा दिखा, सुबह की मीटिंग दिखी, सर्कुलेशन वालों की धमकियाँ दिखीं और अंत में अपना इस्तीफा अपने आप मंजिल की ओर जाता दिखा। अचकचाकर उठ गया और पूरी रात इस्तीफा पकड़ता रहा कि वह पुष्पक विमान पर सवार न हो जाए। फिर तो नीद ही काँच के टुकड़े की मानिंद पलकों में चुभती रही।

वर्षों की साध थी कि सवेरे का सूरज देखूँ। छुट्टियों पर यह इच्छा भी पूरी करनी थी। जिस शहर में सूरज सवेरे कोंच-कोंचकर जगा देता था, वहाँ सूरज बड़े कॉम्पलेक्स के पीछे आ गया था, अतः बिना बाहर निकले उसे देखना मुनासिब नहीं था। सुबह उठा। बाहर निकला तो वह धुँधला-धुधला था और आधा शहर फेंफड़ों में हवा भरने के लिए सड़कों पर घूम रहा था। सूरज वैसा ही था, जैसा कभी-कभार अखबार के पन्नों पर छापा जा चुका था। उसे अगली छुट्टी तक लिए देख लेना था, अतः जीभर कर देखा। लगा अच्छा है कि यह सूरज मेरी तरह अखबार में नौकरी नहीं करता, वरना धरती के आधे लोग तो उसके इंतजार में ही मर जाते। धरती सोती रह जाती। मैं अगर प्रधानमंत्री होता तो चैनलों में दिनभर यह खबर चलती कि मैने सूरज देख लिया। खैर!

दस दिन की छुट्टी बिताने के बाद चलने का समय आया तो घर रोकने लगा। पलभर के लिए लगा कि एक-दो दिन और रुक जाया जाय। बहाना बना दिया जाए कि रेल का रिजर्वेशन नहीं मिला। कल का या परसों का मिला है, लेकिन रुकने का साहस नहीं हुआ। लगा ज्यादा छुट्टी मनाकर लौटूँगा तो दफ्तर भले पहचान ले, लेकिन कहीं आठ कॉलम बावन सेंटीमीटर का अखबारपह ही चानने से न इंकार कर दे। कुल मिलाकर छुट्टी देकर भी दफ्तर पीछे-पीछे लगा रहा।

मंगलवार, 6 अक्तूबर 2009

नज़र शरीफ़ों की चुपके से तालिबान बनी

दोस्तों! कई दिनों से व्यंग्य पोस्ट कर रहा हूँ। आज आपको ग़ज़लों से रूबरू कराते हैं। सामयिक ग़ज़लें। इन्हें आप व्यंग्यनुमा ग़ज़ल या ग़ज़लनुमा व्यंग्य कह सकते हैं। प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका 'समावर्तन' ने सितंबर अंक में इन ग़ज़लों को प्रकाशित किया है।

मेरी बस्ती की मुलक में नई पहचान बनी।
एक गली हिन्दू तो एक मुसलमान बनी।

दंगों ने बदल दी शहर की आबोहवा,
किताब बच्चों की गीता कहीं कुरआन बनी।

सहम-सहम के परिंदे उड़ान भरते हैं,
नज़र शरीफ़ों की चुपके से तालिबान बनी।

मजहब का सियासत से गठजोड़ ग़ज़ब है,
जनमों की आस्था कुरसी की पायदान बनी।

पहचानना मुश्किल है क़ातिल की शक्ल को,
बम छिपाने की महारत बहुत आसान बनी।

शहर से रूठ गया प्यार का मौसम यारो,
आजकल जिंदगी नफ़रत का संविधान बनी।

सोते में चीख़ता है सुल्तान आजकल

टूट पड़ा आँगन में आसमान आजकल।
साँसों में उठ रहा है तूफान आजकल।

कबूतर ने जने हैं कई नन्हें कबूतर,
डर-डर के बाज भरता है उड़ान आजकल।

फ़क़ीर के कदमों में है रफ़्तार कुछ अधिक,
सोते में चीख़ता है सुल्तान आजकल।

पड़ोसी का घर खंगालते खंजर लिए हुए,
तकिए के नीचे छिप गया शैतान आजकल।

मुर्दा से दिखे चेहरे जो भी दिखे यहाँ,
हँसने लगा है बस्ती में शमशान आजकल।

पहुँचा है माँ की कोख तक बाज़ार का दख़ल,
सामान की मानिन्द हैं नादान आजकल।

शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2009

आज मैं गाँधी बन गया

कल सुबह जब कैलेण्डर पलट रहा था, तभी इस बात का ज्ञान हो गया था कि आज २ अक्टूबर है और यह देश मोहनदास करमचंद गाँधी उर्फ महात्मा उर्फ राष्ट्रपिता का जन्मदिन मनाएगा। अतः हर साल की तरह एक बार फिर मेरे पास मौका था गाँधी बनने का। मैंने इस सुअवसर को झपटकर पकड़ा। बक्से में रखे खादी के कुरते को सुबह-सुबह ही धारण कर लिया। मल्टीनेशनल कंपनियों के सारे जींस, जूते, टी-शर्ट वगैरह संदूक में उसी तरह रख दिया जैसे सालभर खादी रखी रहती है। ३६४ दिन अगर बक्से को खादी का सुख मिलता है तो एक दिन जींस, टी-शर्ट और जूते वगैरह का सुख भी मिलना चाहिए।

अब इस बात में शंका-कुशंका तो रही नहीं कि गाँधीजी का जन्मदिन है तो पूरे दिन कार्यक्रम होंगे और सब जगह खादी धारण किए हुए अतिथिओं की जरूरत होगी। कार्यक्रमों की संख्या इतनी अधिक है कि खादीवाले हर इंसान को एक दिन का रोजगार अवश्य मिलेगा। मैंने अपने बदन टंगे कुरते को भरोसा दिलाया कि आज के दिन उदास होने की जरूरत नहीं है। शाम तक निश्चित ही तुम्हें एक भव्य कार्यक्रम मिलेगा और सारे लोग तुम्हारी ओर घूर-घूरकर देखेंगे। बक्से में रखे-रखे तुम्हारे भीतर जो बास समा गई है उस पर आज गुलाब के फूल भी शरमाएँगे।

खादी धारण करने के साथ ही मैंने हमेशा की तरह ढेर सारे संकल्प भी लिए-राष्ट्रपिता भले बन जाऊँ, राष्ट्रपति कभी नहीं बनूँगा। कोई कितना भी पकड़-पकड़ कर बनाए प्रधानमंत्री-मुख्यमंत्री जैसे राजनीतिक पदों पर बैठकर मैं अपना जीवन कलंकित नहीं करूँगा। अंग्रेजों के बनाए सारे पदों, यथा-एसपी, कलेक्टर, तहसलीदार, बाबू वगैरह बनकर अंगरेजों का पाप नही ढोऊँगा। प्यास से तड़फ-तड़फकर प्राण भले ही चले जाएँ, लेकिन मद्यपान नहीं करूँगा। भूखे मर जाऊँ लेकिन मांस नहीं खाऊँगा। आज के दिन किसी भी स्थिति में कोई सांप्रदायिक दंगा नहीं करूँगा। दिनभर में दो-चार किलोमीटर पैदल जरूर चलूँगा। सालभर भले ही मैंने दूसरों के गाल पर चाटा जड़ा है, लेकिन आज अगर कोई एक गाल पर चाटा मारेगा तो मैं दूसरा गाल भी उसके आगे कर दूँगा। अगर कहीं सत्य बोलने का मौका मिला तो पूरी ईमानदारी से बोलूँगा। चोरी-भ्रष्टाचार से भरे पेट में आज पाप का एक दाना भी नहीं डालूँगा। पूरी तरह अस्तेय और अपरिग्रह। जायज और नाजायज दोनों किस्म की पत्नियों से कह दिया है कि आज ब्रह्मचर्य प्रयोग करूँगा। कल तक भले गरीब का खून चूसा हो, लेकिन आज उसे हरिजन कहूँगा और आज के दिन उसे समाज में सम्मान दिलवाऊँगा। घिन लगे तब भी कोढ़ियों की सेवा करूँगा। बस्तियों में झाड़ू लगाऊँगा। पत्नी से कह दिया कि चाहे जो हो जाए, आज टॉयलेट तुम्ही साफ करना, वरना मैं तुम्हें घर से बाहर निकाल दूँगा। वगैरह-वगैरह...

जैसे-जैसे दिन चढ़ता गया, संकल्पों के बोझ से हमारी कमर टूटने लगी। दोपहर को लगा कि खादी और संकल्प धारण किए हुए पूरे छः घंटे हो गए, लेकिन किसी नामुराद आयोजक की अब तक मुझ पर नहीं पड़ी। एक बारगी लगा कि सब उतार कर आले पर रख दूँ, लेकिन दूसरे पल फिर लगा कि अभी पूरा दिन है, देर रात तक आयोजन चलेंगे। किसी न किसी की नजर तो पड़ेगी। गत वर्ष तक जिन्होंने बुलाया था क्या वे सारे आयोजक हमें भूल गए होंगे। सालभर में क्या गाँधी के इतने सेवक तैयार हो गए कि मेरे जैसा पुराना गाँधीवादी भुला दिया गया।

दोपहर पल्ला झाड़कर चली गई और कोई नहीं आया। मैंने फिर भी सुबह लिया हुआ संकल्प कायम रखा और बकरी का एक गिलास दूध पीकर थोड़ा और इंतजार किया, फिर थोड़ी सलाद और चटनी लेकर दोपहर का खाना निपटाया। खाना पिछले साल की तरह ही बेस्वाद लगा। लगा अगर यह संकल्प पूरे तीन सौ पैंसठ दिन टिक गया तो जीवन नरक हो जाएगा। पीजा-बर्गर, मुर्ग-मसल्लम से लेकर खीर-पुडी तक हमारा नाम ले-लेकर मातम मनाएँगे। खैर...

भोजन प्रसाद के बाद बाहर निकला ही था कि दौड़ते हुए एक सज्जन आए और उन्होंने कहा कि मोहल्ले में गाँधी जयंती का आयोजन है, हम लोगों ने पार्षद को मुख्यअतिथि बनाया था, वह कहीं और चला गया। अब आप ही पधारिए, कार्यक्रम जल्दी करना है। हमें लगा कि हमने सुबह से जो इतने संकल्प ढोए हैं, क्या मोहल्ले के मुख्यआतिथ्य में ही उनका स्वर्गवास हो जाएगा। मैं अभी इतना भी तो नहीं गिरा हूँ कि मुख्यअतिथि बनने के लिए पार्षद का विकल्प बनूँ। मैंने सज्जन को यह कहते हुए झटपट मना किया कि अभी मुझे तीन बजे की प्रार्थना पर जाना है। शाम को बड़े मैदान पर गरीबों को कपड़े बाँटने के लिए मुख्यमंत्री को आना था, मुझे पता था कि इस अवसर पर एक गाँधीवादी का सम्मान किया जाना है और उन्हें फिलहाल कोई मिल नहीं रहा है। जो बड़ी सेटिंगवाले गाँधीवादी थे उन्हें दिल्ली में, जो उनसे थोड़ा कम थे, उन्हें भोपाल में सुबह ही सम्मानित किया जा चुका है। लोकल कोई इतना बड़ा गाँधीवादी नहीं, जो गाँधीगिरी के अलावा कुछ और न करता हो। मुख्यमंत्री के लोकल चमचों से इधर-उधर से कुछ जुगाड़ अपना भी था।

उधर भोपाल से मुख्यमंत्री का हेलीकॉप्टर उड़ा होगा कि इधर हमारे पास कार्यक्रम में शामिल होने का न्यौता आया। मुझे अपने कुरते पर गर्व हुआ। मुख्यमंत्री से श्रेष्ठ गाँधीवादी का सम्मान लेकर मैं कुछ हल्का हुआ। घर आया, सम्मान को बैठक कक्ष में टांगा और दिनभर से जिस बोझ से कमर टूट रही थी, उसे उतारकर संदूक में रख दिया।