बुधवार, 2 सितंबर 2009

बसंत और गणतंत्र

बसंत और गणतंत्र का मिलन केवल संयोग नहीं है। बसंत अपने आप में गणतंत्र है और गणतंत्र पूरा बसंत। बसंत गणतंत्र इसलिए क्योंकि हवा किसी हुकूमत के कहने पर मादक नहीं होती, कोपलें तेज धार वाली तलवारें देखकर नहीं फूटतीं, कलियां मिसाइल और तोप के डर से नहीं खिलतीं तथा यौवन सरकारी नीतियों के रथ पर सवार होकर नहीं आता। वह ''जनता का, जनता के द्वारा और जनता के लिए'' की तर्ज पर स्वयं का, स्वयं के द्वारा और स्वयं के लिए घटित होता है। गणतंत्र बसंत इसलिए क्योंकि जनतंत्र की डाल पर नेताओं के प्रस्फुटित होने के लिए सदा ही उपयुक्त वातावरण रहता है। रिश्वत और भ्रष्टाचार की कलियां गुलशन-गुलशन खिली हुई हैं। घोड़ा और घास को बराबर की आजादी है। घोड़ा चरने पर आमादा है और घास बढ़ने पर। गुरु परसाई क्षमा करें, अब गणतंत्र ठिठुरा हुआ नहीं है, वह बासंती हो गया है।
बसंत सबको निर्भय बनाता है। सुई की तरह चुभने वाली शीतऋतु की ठंड का भय समाप्त हो जाता है और ग्रीष्म के लू की दादागिरी भी नहीं चलती। गणतंत्र में सभी निर्भय हैं। न चोर पुलिस से डरते न ही अपराधी कानून से। कवि की भाषा पर कुछ-कुछ डकैती डालें तो गणतंत्र के बसंत ने पुलिस को संत और चोर को उसका कंत बना दिया है। बासंती गणतंत्र की चमक कूलन, केलि, कछारन, कुंजन में फैल गई है। कवि ने बसंत का वर्णन करते हुए जिस सर्दी, खाँसी, बुखार आदि बीमारियों का जिक्र अपनी कविता में नहीं किया है, उसी तरह गणतंत्र में बेरोजगारी, महँगाई और भुखमरी आदि नाना प्रकार की व्याधियों को छिपाना श्रेयस्कर समझा गया है।
बसंत कल्पनाओं को जन्म देता है और गणतंत्र कल्पनाओं में जीने का आदी बनाता है। एक कविता कामिनी को जन्म देने का दावा करता है दूसरा पेट भरने का वादा करता है। पृथ्वी की संरचना के अनुसार छह ऋतुओं साथ बसंत का संग केवल भारत भूमि को ही प्राप्त है, इसलिए हमने ऐसा गणतंत्र बनाया कि ३६५ बसंत झरता रहे।
बसंत क्या है? ठंडी और गर्मी का संक्रमण काल। वह पहचाना जाता है काली कोयल से-बौराई अमराई से, आँखों की हाला से-इठलाती बाला से। गणतंत्र क्या है? नेताओं की कौआगिरी और जनता का भोलापन। उसकी पहचान चुनाव और अफसरशाही है। जिस तरह थोड़ी गर्मी और थोड़ी सर्दी से मिलकर बसंत बनता है, उसी तरह थोड़ा राजतंत्र और थोड़ी नादिरशाही से मिलकर गणतंत्र बनता है। बसंत में बसंतोत्सव है और गणतंत्र में गणतंत्रोत्सव। बसंत के अधिपति कामदेव हैं और गणतंत्र के नामदेव (जो केवल नाम के देवता हैं)। बसंत आबादी को बढ़ाने का उपयुक्त मौसम है और गणतंत्र आबादी से चलने वाला खूबसूरत तंत्र। जो झूठ बोलने में दक्ष हैं वे बसंत में भी मजे में हैं और गणतंत्र में भी।
बसंत में भूख और नीद बहुत अच्छी लगती है। खाओ और सोओ। गणतंत्र में भी सोने वाले लोग तरक्की पाते हैं। हमारे कई प्रधानमंत्रियों को जब तक सत्ता का बसंत मिला रहा तब तक वे खाते और सोते रहे। इतिहास में भी सोने वालों की कमी नहीं। मुगल और अंग्रेज हमारे कुरसीपतियों के ऊँघने के कारण ही इस देश के मालिक बने। अब बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ आ रही हैं। वे अपने साथ बसंत का फुलटाइम पैकेज लेकर आ रही हैं। वे चाहती हैं कि हमारा काम खाना और सोना हो और उनका काम खिलाना और हम पर राज करना। यह पैकेज 'गण' और 'तंत्र' दोनों को पसंद आ रहा है।
बसंत में मन झूम-झूम नाचता है और गणतंत्र में कुरसी झूम-झूत नाचती है। कवि की कविता में बसंत का सौंदर्य निराला है और नेता के भाषण में गणतंत्र की शोभा अद्‌भुत है। बसंत स्वप्न है और गणतंत्र सपनों का संसार। खुली आंखों से देखने पर न बसंत दिखाई देता है और न गणतंत्र। बसंत के भीतर जिस तरह संत केवल नाममात्र का है, उसी तरह गणतंत्र के भीतर 'गण' का वास भी नाममात्र ही है। बसंत संत को पीस रहा है और गणतंत्र में तंत्र 'गण' को पीस रहा है।

(नईदुनिया इंदौर में प्रकाशित )

4 टिप्‍पणियां:

shyam gupta ने कहा…

शानदार व्यन्ग्य,वाह! क्या तत्व -मीमान्सा है, बसंत व गण तन्त्र की।
अच्छा लिखा, लिखते रहो।

हेमन्त कुमार ने कहा…

बहुत खूब । भविष्य निश्चय ही सुन्दर है ।

दिगम्बर नासवा ने कहा…

VAAH KYA TEZ DHAAR KE KALAM CHALAAI HAI AAONE .... GALA BHI KAT JAAYE, PATA BHI NA CHALE ... LAJAWAAB .... SUNDAR HAI ....

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर ने कहा…

narayan narayan